झारखंड सामान्य ज्ञान
भोगता विद्रोह : 1771 ई .
वस्तुतः भोगता विद्रोह 1770 - 71 ई , के चेरो विद्रोह की एक पूरक घटना था । पलामू राजा चित्रजीत राय का दीवान ( प्रधानमंत्री ) जयनाथ सिंह एक भोगता सरदार था । अंग्रेज सीधे जयनाथ सिंह से ही बात करते थे । 9 जनवरी , 1771 ई . को जयनाथ सिंह को पटना काउन्सिल का पत्र उसके दूत गुलाम हुसैन खाँ के मार्फत मिला , जिसमें उसे शांतिपूर्वक पलामू किला कम्पनी के हवाले कर देने का आदेश दिया गया था । यहीं से भोगता विद्रोह का आरंभ हुआ । यह चेरा लोगों के साथ मिलकर लड़ा गया । जयनाथ सिंह पलामू किला छोड़ने को तैयार था किन्तु कुछ शर्तों के साथ । चूँकि कम्पनी पलामू किला हथियाने पर आमादा थी इसलिए अंग्रेजों ने जयनाथ सिंह द्वारा रखी गई शर्तों को अनुचित कहकर उन्हें मानने से इंकार कर दिया । लड़ाई छिड़ गई ।
भोगता और चेरो दोनों ने साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला किया , किन्तु भोगता सरदार जयनाथ सिंह पराजित होकर सरगुजा भाग गया और अंग्रेजों ने गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित कर दिया ।
घटवाल विद्रोह : 1772 - 73 ई .
पहाड़ियों के घाटों ( रास्तों ) से महसूल वसूलने वाले को ' घटवाल ' कहा जाता था । 1772 ई . में अंग्रेजों के विरुद्ध हजारीबाग खासकर रामगढ़ राज्य के घटवालों द्वारा किये गये विद्रोह को घटवाल विद्रोह ' कहा जाता है । यह विद्रोह अपने राजा के प्रति किये गये अंग्रेजों के दुर्व्यवहार का विरोध था । रामगढ नरेश मुकंद सिंह के राज्य पर जब उसके एक संबंधी तेज सिंह ने अपना अधिकार जताया तो अंग्रेजों ने तेज सिंह का समर्थन किया । मुकंद सिंह पर अंग्रेज कैप्टेन जैकब कैमक ने दक्षिण की तरफ से तथा तेज सिंह ने उत्तर की तरफ से एक साथ हमला बोला । बंदी बनाये जाने के डर से मुकुंद सिंह भाग खड़ा हुआ । चूँकि घटवाल मुकुंद सिंह के वफादार रैयत ये इसलिए उन्होंने विद्रोह कर दिया । आन्द्रगरबा घाटी के घटवाल लोरंगा व दुनगुना घाटी के घटवालों से मिलकर कैप्टेन जैकब कैमक का विरोध करने लगे । इस विद्रोह में छै व चम्पा राज्य के रैयतों ने भी रामगढ़ नरेश मुकुंद सिंह का साथ दिया । इस विद्रोह की खास बात यह रही कि इसमें किसी युद्ध जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था । घटवालों का संगठन देखकर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी , किन्तु अंग्रेजों द्वारा समझाने बुझाने से वे शांत हो गए । घटवालों व रैयतों को जब यह लगा कि मुकुंद सिंह किसी भी कीमत पर पुनः राजा नहीं बन सकता तो वे भी उसका साथ छोड़कर अपने - अपने काम - धंधे में लग गए । इस प्रकार , यह विरोध बिना कोई विस्फोटक स्थिति उत्पन्न किये समाप्त हो गया । बाद में अंग्रेजों ने घटवालों को कई रियायतें प्रदान की।
झारखंड की जनजातियाँ :-
खरवार / खेरवार ( Kharwar / Kherwar )
खरवार परंपरा के अनुसार ये खेरीझार से आये थे इसलिए ' खरवार ' कहलाये । खरवार झारखंड की पाँचवीं सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है । झारखंड में इनका मुख्य जमाव पलामू प्रमण्डल यानी पलामू , लातेहार, एवं गढ़वा जिले में है। इसके अलावे ये राँची , हज़ारीबाग आदि मे भी पाये जाते हैं।
खरवार जनजाति का संबंध द्रविड़ प्रजाति समूह से है । सम्पन्न खरवारों ने उच्च कलों में वैवाहिक संबंध स्थापित किये। इसी कारण इनका रंग - रूप छोटानागपुरी राजपूतों की तरह हो गया।
सामाजिक व्यवस्था : खरवार जनजाति अंतर्विवाही उपजातियों , बहिर्विवाही गोत्रों में बंटी हुई है। खरवारों की चार मुख्य उपजातियाँ हैं — 'भोगता' , 'मांझी' , 'राउत' एवं 'महतो'। खरवारों में सामाजिक स्तर का सर्वप्रमुख निर्धारक तत्व भू - सम्पदा है। जमींदार खरवार को ‘राजपूत' कहते हैं जबकि सामान्य खरवारों को भोगता , मांझी आदि कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि रामगढ़ राजपरिवार मूलतः खरवार थे। खरवारों में घुमकुरिया ( युवा गृह ) जैसी संस्था नहीं पायी जाती। खरवारों में बाल विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है। खरवारों में वधू - मूल्य देने की प्रथा है। खरवारों में बहुविवाह की प्रथा मिलती है। खरवारों में विधवा पुनर्विवाह की प्रथा मिलती है जिस ' सगाई ' कहा जाता है। खरवार जनजाति में तलाक प्रथा भी प्रचलित है। खरवार ग्राम पंचायत का प्रमुख 'मुखिया' या 'बैगा' कहलाता है| चार गाँवों की पंचायत को मिलाकर 'चट्टी' बनता है। पाँच गाँवों की पंचायत को 'पचौरा' एवं सात गाँवों की पंचायत का 'सतीरा' कहा जाता है। एक से अधिक गाँवों के पंचायतों से मिलकर बने पंचायत के प्रमुख को 'प्रधान' कहा जताा है।
अर्थव्यवस्था : खरवारों का मुख्य पेशा कृषि ( खेती ) है। खरवारों में कुछ जमींदार हैं जबकि आधिकांश रैयत हैं। अत्यंत गरीब खरवार खेतिहर मजदूर हैं। कुछ खरवारों ने स्थानीय कोयला जाना एवं सुदूर असम के चाय बगानों में मजदूरी का काम अपना लिया है।
धर्म : खरवारों का सर्वप्रमुख देवता ' सिंगबोंगा ' है । अन्य प्रमुख देवी देवता हैं - ' मुचुकरानी ' ('दुर्गागिन' अथवा 'पछियारी' ) , 'दुआरपार' , 'धरती माई' , 'देवी' , 'चंडी' , 'दरहा' , 'दक्षिणी' आदि। ध्यातव्य है कि खरवारों ने हिन्दू प्रभाव के फलस्वरूप कई हिन्दू देवी देवताओं को अपना लिया है। खरवार धार्मिक कृत्यों में ब्राह्मण पुरोहितों की सेवा लेते हैं। किन्तु बलि चढ़ाने के लिए जनजातीय ‘पाहन' अथवा 'बैगा' की सहायता ली जाती है। बीमार पड़ने या घोर संकट आने पर खरवार ‘ओझा' या 'मती' की सहायता लेते हैं।
खड़िया ( Khariya )
खड़िया जनजाति झारखंड की एक प्रमुख जनजाति है। खड़खड़िया ( पालकी ) ढोने के कारण इस जनजाति का नाम खड़िया पड़ा है। झारखंड में इनका जमाव राँची, सिंहभूम एवं हजारीबाग क्षेत्रों में है। झारखंड के बाहर खड़िया जनजाति उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम एवं बंगाल में पाये जाते हैं।
खड़िया जनजाति का सबंध प्रोटो - आस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है। शारीरिक रूप से वे औसत कद के होते हैं। इनकी नाक जड़ में दबी हुई, चेहरा उभरा हुआ व चौड़ा होता है।
सामाजिक व्यवस्था : खड़िया जनजाति तीन वर्गों में विभाजित है — पहाडी खड़िया, ढेलका खड़िया एवं दूध खड़िया। इन तीन वर्गों में पारस्परिक विवाह नहीं होता है। खड़िया जनजाति के प्रमुख गोत्र है - पहाड़ी खड़िया वर्ग : गूलू भुइया, जारू , हेम्ब्रम; ढेलकी खड़िया वर्ग - मुरु समद , हंसदा , टोपनो; दूध खड़िया वर्ग : डुंगड्ग , कुलू , बिलंग , सोनेर किरो। खड़िया जनजाति का युवागृह 'गोतिओ' कहलाता है । खड़िया समाज में बहुविवाह प्रचलित है। खड़िया में विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप 'ओलोलदाय' है जिसे ' असल विवाह ' भी कहा जाता है। विवाह के अन्य प्रकार है - उधरा - उधरी ' ( सह पलायन ), ढुकू चोलकी ( अनाहूत ), तापा ( अपहरण), राजी - खुशी ( प्रेम विवाह ) आदि। वधू मूल्य को 'गिनिङतङ' कहा जाता है। खड़िया समाज में विधवा पुनर्विवाह एवं तलाक प्रथा को सामाजिक मान्यता प्राप्त है ।
खड़िया गाँव का मुख्यिा 'प्रधान' कहलाता है। खडिया जनजाति के जातीय पंचायत को 'धीरा' एवं पंचायत प्रमुख को 'बंदिया' कहा जाता है ।
अर्थव्यवस्था : खड़ियाओं मे पहाड़ी खड़िया सबसे अधिक पिछड़ा एवं दूध खड़िया सबसे अधिक संपन्न है। पहाड़ी खड़िया अभी भी आदिम तरीके से जीते हैं और शहद, जड़ी-बूटी, कंद - मूल , जंगली फल आदि उनके मुख्य आहार हैं। ढेलकी खड़िया एव दूध खड़िया ने कृषि कर्म को अपना लिया है। ये मकई , बाजरा , दलहन आदि की खेती करते है।
धर्म : खड़िया जनजाति का सर्वप्रमख देवता “बेला भगवान' या 'ठाकुर' है जो सूर्य का एक प्रतिरूप है। अन्य प्रमुख देवी - देवता हैं — पारदबो ( पहाड देवता ) , बोराम ( वन देवता ) , गुमी ( सरना दवा ) आदि । पहाड़ी खड़िया का धार्मिक प्रधान 'दिहुरी ' तथा ढेलकी खडिया व दुध खडिया का धार्मिक प्रधान 'पाहन' कहलाता है ।
लोहारा / लोहरा ( Lohara )
लोहारा / लोहरा लोहार का ही दूसरा नाम है। यह झारखंड की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। झारखंड में इनका जमाव राँची, गुमला, सिमडेगा, हजारीबाग, गिरिडीह लोहरदगा आदि में है। ये असुर के वंशज माने जाते हैं। इस जनजाति का संबंध प्रोटो- ऑस्ट्रेलॉयड प्रजाति समूह से है।
सामाजिक व्यवस्था : लोहारा जनजाति के प्रमुख गोत्र हैं – साउरह , सोनू, कचुआ , धान , तिरकी आदि। इस जनजाति में समगोत्रीय विवाह निषिद्ध है। इस जनजाति में सामान्यतः एक विवाह की प्रथा है। कहीं कहीं बहुविवाह भी देखने को मिलता है।
अर्थव्यवस्था : इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय घर - गृहस्थी के लिए उपयोगी लोहे के उपकरण बनाना है। खाली समय में ये शिकार करना, नाचना - गाना पसंद करते हैं। नाई, धोबी, कहार आदि की तरह इस जनजाति की उपस्थिति सभी गाँवों में देखने को मिलती है।
धर्म : इस जनजाति का सर्वप्रमुख देवता विश्वकर्मा देव है ।
खड़िया ( Khariya )
खड़िया जनजाति झारखंड की एक प्रमुख जनजाति है। खड़खड़िया ( पालकी ) ढोने के कारण इस जनजाति का नाम खड़िया पड़ा है। झारखंड में इनका जमाव राँची, सिंहभूम एवं हजारीबाग क्षेत्रों में है। झारखंड के बाहर खड़िया जनजाति उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम एवं बंगाल में पाये जाते हैं।
खड़िया जनजाति का सबंध प्रोटो - आस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है। शारीरिक रूप से वे औसत कद के होते हैं। इनकी नाक जड़ में दबी हुई, चेहरा उभरा हुआ व चौड़ा होता है।
सामाजिक व्यवस्था : खड़िया जनजाति तीन वर्गों में विभाजित है — पहाडी खड़िया, ढेलका खड़िया एवं दूध खड़िया। इन तीन वर्गों में पारस्परिक विवाह नहीं होता है। खड़िया जनजाति के प्रमुख गोत्र है - पहाड़ी खड़िया वर्ग : गूलू भुइया, जारू , हेम्ब्रम; ढेलकी खड़िया वर्ग - मुरु समद , हंसदा , टोपनो; दूध खड़िया वर्ग : डुंगड्ग , कुलू , बिलंग , सोनेर किरो। खड़िया जनजाति का युवागृह 'गोतिओ' कहलाता है । खड़िया समाज में बहुविवाह प्रचलित है। खड़िया में विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप 'ओलोलदाय' है जिसे ' असल विवाह ' भी कहा जाता है। विवाह के अन्य प्रकार है - उधरा - उधरी ' ( सह पलायन ), ढुकू चोलकी ( अनाहूत ), तापा ( अपहरण), राजी - खुशी ( प्रेम विवाह ) आदि। वधू मूल्य को 'गिनिङतङ' कहा जाता है। खड़िया समाज में विधवा पुनर्विवाह एवं तलाक प्रथा को सामाजिक मान्यता प्राप्त है ।
खड़िया गाँव का मुख्यिा 'प्रधान' कहलाता है। खडिया जनजाति के जातीय पंचायत को 'धीरा' एवं पंचायत प्रमुख को 'बंदिया' कहा जाता है ।
अर्थव्यवस्था : खड़ियाओं मे पहाड़ी खड़िया सबसे अधिक पिछड़ा एवं दूध खड़िया सबसे अधिक संपन्न है। पहाड़ी खड़िया अभी भी आदिम तरीके से जीते हैं और शहद, जड़ी-बूटी, कंद - मूल , जंगली फल आदि उनके मुख्य आहार हैं। ढेलकी खड़िया एव दूध खड़िया ने कृषि कर्म को अपना लिया है। ये मकई , बाजरा , दलहन आदि की खेती करते है।
धर्म : खड़िया जनजाति का सर्वप्रमख देवता “बेला भगवान' या 'ठाकुर' है जो सूर्य का एक प्रतिरूप है। अन्य प्रमुख देवी - देवता हैं — पारदबो ( पहाड देवता ) , बोराम ( वन देवता ) , गुमी ( सरना दवा ) आदि । पहाड़ी खड़िया का धार्मिक प्रधान 'दिहुरी ' तथा ढेलकी खडिया व दुध खडिया का धार्मिक प्रधान 'पाहन' कहलाता है ।
लोहारा / लोहरा ( Lohara )
लोहारा / लोहरा लोहार का ही दूसरा नाम है। यह झारखंड की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। झारखंड में इनका जमाव राँची, गुमला, सिमडेगा, हजारीबाग, गिरिडीह लोहरदगा आदि में है। ये असुर के वंशज माने जाते हैं। इस जनजाति का संबंध प्रोटो- ऑस्ट्रेलॉयड प्रजाति समूह से है।
सामाजिक व्यवस्था : लोहारा जनजाति के प्रमुख गोत्र हैं – साउरह , सोनू, कचुआ , धान , तिरकी आदि। इस जनजाति में समगोत्रीय विवाह निषिद्ध है। इस जनजाति में सामान्यतः एक विवाह की प्रथा है। कहीं कहीं बहुविवाह भी देखने को मिलता है।
अर्थव्यवस्था : इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय घर - गृहस्थी के लिए उपयोगी लोहे के उपकरण बनाना है। खाली समय में ये शिकार करना, नाचना - गाना पसंद करते हैं। नाई, धोबी, कहार आदि की तरह इस जनजाति की उपस्थिति सभी गाँवों में देखने को मिलती है।
धर्म : इस जनजाति का सर्वप्रमुख देवता विश्वकर्मा देव है ।
भगीरथ मांझी ( मृत्यु : 1879 ई० )
भगीरथ मांझी का जन्म गोड्डा जिले के तलडीहा गाँव में हुआ। वे खरवार जनजाति के थे। उन्होंने 1874 ई . में एक आंदोलन आरंभ किया, जिसे खरवार आंदोलन कहा जाता है। यह आंदोलन आरंभ में एकेश्वरवाद एवं सामाजिक सुधार की शिक्षा देता था, लेकिन अपने दमन के ठीक पूर्व यह राजस्व - बंदोबस्ती की गतिविधियों के विरुद्ध एक अभियान का रूप धारण किया। उन्होंने घोषणा की कि उन्हें सिंगबोंगा का दर्शन। हुआ है और सिंगबोंगा ने उन्हें बौंसी गांव का राजा नियुक्त किया है। इसलिए उन्होंने स्वयं को राजा घोषित किया और ब्रिटिश सरकार, जमींदार को कर नहीं देने की घोषणा की। उन्होंने लोगों पर लगान तय किए और उन्हें रसीद दिये तथा लगान की वसूली करना शुरू कर दिया। उनकी इस हरकत के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। नवम्बर , 1877 ई . में उन्हें रिहा कर दिया गया। 1879 ई . में उनकी मृत्यु हो गई। लोग उन्हें श्रद्धावश 'बाबाजी' कहते थे।
प्रमुख बिंदु :-
= > भागीरथ मांझी का जन्म तलडीहा ( गोड्डा ) में खरवार जनजाति में हुआ था।
=> भागीरथ मांझी को बाबाजी के नाम से भी जाना जाता है।
=> भागीरथ मांझी ने 1874 ई . में खरवार आंदोलन का प्रारंभ किया। प्रारंभ में यह आंदोलन एकेश्वरवाद तथा सामाजिक सुधार की शिक्षा के प्रसार पर केंद्रित था , परन्तु बाद में यह आंदोलन राजस्व बंदोबस्ती के विरूद्ध एक जन आंदोलन में परिणत हो गया।
=> भागीरथ मांझी ने स्वयं को राजा घोषित कर जमींदारों को कर न देने की अपील की। इसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
=> 1877 ई . में भागीरथ मांझी रिहा किए गये तथा 1879 ई . में उनकी की मृत्यु हो गयी।
Good job guru ji
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